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Monday, January 4, 2010

घूंघट


गाँव के पनघट पर
गोरिया पानी भरने आती थी
घूंघट में अपने
चेहरे को छुपाती थी
कही कोई देख न ले
इस लाज - शर्म के मारे
बार - बार घूंघट को
नीचे सरकाती थी
एक दूजे की
सुख - दुःख  की कहानी
आपस में बतियाती थी
पानी भरकर
फिर घूंघट में
घर की ओर आती थी
सुन्दर सा चेहरा घूंघट में
जो न किसी को दिखाती थी
घूंघट को ही गहना समझकर
वो गोरिया शरमाती थी
 

1 comment:

महावीर said...

बहुत सुन्दर भाव हैं.
एक दूजे की
सुख - दुःख की कहानी
आपस में बतियाती थी
सुन्दर सा चेहरा घूंघट में

जो न किसी को दिखाती थी
घूंघट को ही गहना समझकर
वो गोरिया शरमाती थी
पूरी कविता अच्छी लगी.
महवीर शर्मा